Thursday, September 25, 2008

भूल गए !

डिस्को की इस चका चौंध में दिया जलाना भूल गए
बर्गर्स पिज्जा कोल्ड ड्रिंक्स में घर का खाना भूल गए

फर्स्ट नेम से कॉल करने में इज्ज़त देना भूल गए
ऑफिस के हर टेंशन में हसना रोना भूल गए

आइसोलेटेड केबिन में दोस्तों का शोर गुल भूल गए
परफेक्शन की आदत में माफ़ करना भूल गए

ग्लोबल सिटिज़न हो गए, पर पड़ोसी बनाना भूल गए
दुनिया की ख़बर है मगर घर में झांकना भूल गए

हर क्लाइंट को खुश रखा, बच्चे का खिलौना भूल गए
डेड लाइंस की भीड़ में, बर्थडे की खुशिया भूल गए

और कमाओ और कमाओ, किस लिए ये भूल गए
और चाहिए और चाहिए, क्या चाहिए भूल गए

सेकडों की भीड़ में ख़ुद का चेहरा भूल गए
इस अनजानी दौड़ में हम ख़ुद को ही भूल गए

भूल गए ...

भूल गए ...

A poem for a play we wrote for a friend, 
'ITs gondhal'.
The play is based on frustation of young proffessional in IT industry who are missing out on beauties of life.